कोरोना को हराना है तो पूरी करनी होंगी ये तीन शर्तें, एकजुटता से ही जीतेगी दुनिया

दुनिया में जब से कोविड-19 महामारी की शुरूआत हुई है हमने वैश्विक एकजुटता शब्द बार-बार सुना है। दुर्भाग्य से केवल शब्दों के दम पर न तो इस महामारी से मुक्ति मिलेगी और न ही जलवायु संकट की मार पर अंकुश लग सकेगा। अब यह सिद्ध करने का समय आ गया है कि व्यवहार में एकजुटता का अर्थ क्या होता है। वेनिस में जी-20 वित्त मंत्रियों की बैठक होनी है। उनके सामने एकजुटता की तीन बड़ी महत्वपूर्ण कसौटियां हैं: टीकों की उपलब्धता, विकासशील देशों के लिए आर्थिक सुरक्षा कवच का विस्तार और जलवायु संकट का सामना करने के उपाय।

पहली कसौटी: टीकों की उपलब्ध्ता

पहली कसौटी है टीकों की उपलब्ध्ता। विश्व भर में टीकाकरण के प्रसार का अंतर हम सब के लिए खतरे की घंटी है। टीके से वंचित लोगों के बीच पांव पसारते हुए कोविड-19, रोगाणु निरंतर अपने रूप बदलता जा रहा है और उसके नए रूप अधिक संक्रामक, अधिक घातक अथवा दोनों हो सकते हैं। आज टीकों और रोगाणु के बदलते रूपों के बीच होड़ मची है। यदि रोगाणु के बदलते रूप जीत गए तो यह महामारी लाखों और लोगों की जान ले सकती है और दुनिया को संकट से उबारने में वर्षों की देरी हो सकती है।

एक तरफ कुछ विकसित देशों में 70 प्रतिशत आबादी को बचाव का टीका लग चुका है, तो दूसरी तरफ कम आय वाले देशों में यह अनुपात एक प्रतिशत से भी कम है। एकजुटता का अर्थ यह है कि टीका, हर व्यक्ति को सुलभ कराया जाए और वह भी जल्दीे से जल्दी।

टीकों की खुराक और धन की सहायता के वायदे सुनने में अच्छे लगते हैं पर अब हमें वास्तविकता का सामना करना होगा। हमें दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी को टीके लगाने और इस महामारी से छुटकारा पाने के लिए एक अरब नहीं बल्कि कम से कम 11 अरब खुराक चाहिए। दान- पुण्य और नेक इरादों के बल पर हम यह लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते। इसके लिए मानव इतिहास में वैश्विक जन-स्वास्थ्य के सबसे विशाल अभियान की आवश्यकता है। जी-20 को, प्रमुख टीका उत्पादक देशों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के समर्थन से एक ऐसी वैश्विक टीकाकरण योजना तैयार करनी होगी जिसमें टीके हर व्यक्ति तक, हर जगह पहुंच सकें – देर से नहीं, जल्दी से जल्दी।

दूसरी कसौटी: आर्थिक सुरक्षा कवच

एकजुटता की दूसरी कसौटी आर्थिक सुरक्षा कवच का दायरा उन देशों तक फैलाने का है जो ऋण चुकाने में चूक के कगार पर हैं।  कोविड-19 संकट से पार पाने के लिए अमीर देशों ने अपने सकल घरेलू उत्पाद की 28 प्रतिशत के बराबर राशि झोंक दी है लेकिन मध्यम आय वाले देशों में यह अनुपात 6.5 प्रतिशत और सबसे कम विकसित देशों में तो 2 प्रतिशत से भी नीचे रहा है।

 

अनेक विकासशील देश आज अपने ऋण की किस्त चुकाने में बुरी तरह असमर्थ हैं, उनके घरेलू बजट तार-तार हो रहे हैं और कर बढ़ाने की उनकी क्षमता कम हो गई है। इस महामारी के कारण दुनिया भर में निपट गरीबी के भंवर में फंसे लोगों की संख्या में लगभग 12 करोड़ की वृद्धि होना तय है। इन ‘नव-निर्धन’ लोगों में से तीन-चौथाई से अधिक मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं।

इन देशों को वित्तीय तबाही से बचने और मज़बूती से उबरने में निवेश के लिए मदद की आवश्यवकता है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने धन लेने के विशेष अधिकार, एसडीआर में 650 अरब डॉलर का प्रावधान कर, एक कदम बढ़ाया है। यह नकदी संकट से जूझ रहे देशों के लिए धन की उपलब्धकता बढ़ाने का सबसे सही तरीका है। अमीर देशों को चाहिए कि इस निधि में से अपने हिस्से की जो रकम वे इस्तेमाल नहीं कर पाए हैं उसे निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में बांट दें। एकजुटता का यह एक सार्थक रूप होगा।

 

जी-20 देशों ने इस दिशा में कर्ज अदायगी स्थागित करने की पहल (Debt Service Suspension Initiative) और कॉमन फ्रेमवर्क फॉर डेट ट्रीटमेंट जैसे जो उपाय अपनाए हैं मैं उनका स्वागत करता हूं। किंतु वह पर्याप्त नहीं हैं। मध्यम आय वाले सभी ज़रूरतमंद देशों को कर्ज अदायगी से राहत दी जानी चाहिए। निजी ऋणदाताओं को भी इस महायज्ञ में आहुति देनी चाहिए।

तीसरी कसौटी: जलवायु परिवर्तन

एकजुटता की तीसरी कसौटी का संबंध जलवायु परिवर्तन से है। अधिकतर बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों ने इस शताब्दी के मध्य तक अपना कार्बन उत्सबर्जन कुल शून्य के स्तदर तक घटा देने का वायदा किया है जो पेरिस समझौते में शामिल 1.5 डिग्री के लक्ष्यत के अनुरूप है। यदि ग्लाोस्गो में होने वाली सीओपी-26 बैठक को इस दिशा में निर्णायक मोड़ साबित होना है तो हमें जी-20 में शामिल सभी देशों एवं विकासशील देशों से भी इसी तरह का वचन लेने की आवश्यमकता है।

किंतु विकासशील देशों को यह आश्वस्ति चाहिए कि उनके लक्ष्यों  की पूर्ति के लिए उन्हें  वित्तीय एवं तकनीकी समर्थन दिया जाएगा। इसमें  100 अरब डॉलर की वह वार्षिक जलवायु वित्तीतय सहायता शामिल है जिसे प्रदान करने का वायदा विकसित देशों ने एक दशक से भी पहले किया था। उनकी यह अपेक्षा पूरी तरह उचित है। कैरेबियन से लेकर प्रशांत तक विकासशील देश, एक शताब्दी तक हुए उस ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के कोप से निपटने की सुविधाएं जुटाने के भारी खर्च के नीचे दबे हुए हैं, जिस उत्सर्जन में उनकी कोई भूमिका नहीं रही।

इस कसौटी में एकजुटता की दिशा में पहला कदम 100 अरब डॉलर प्रदान करने का है। जलवायु परिवर्तन की मार से निपटने के लिए दी जाने वाली सभी प्रकार की वित्तीय सहायता में से 50 प्रतिशत राशि  अनुकूलन के लिए आवंटित की जानी चाहिए जिसमें तूफानों, सूखे तथा मौसम की कठोरतम परिस्थितियों की मार सहने में सक्षम आवास, सतह से ऊंचे सड़क मार्गों और कुशल शुरूआती चेतावनी प्रणालियों का निर्माण शामिल है।

महामारी के दौरान सभी देशों को क्षति उठानी पड़ी है किंतु टीकों की उपलब्धता, सततता और जलवायु कार्रवाई जैसे वैश्विक जनहितकारी उपायों में सिर्फ अपने देश का भला करने की सोच हमें बर्बाद कर देगी।

इसके बजाय जी-20 हमें संकट से उबरने की राह दिखा सकता है। अगले 6 महीने में यह सिद्ध हो जाएगा कि वैश्विक एकजुटता की बातें कोरे शब्द जाल से निकलकर सार्थक कार्रवाई का रूप ले सकती हैं या नहीं। इन तीन महत्वपूर्ण कसौटियों पर खरा उतरने के लिए राजनीतिक संकल्प  और सिद्धांतपरक नेतृत्व के बल पर जी-20 देशों के नेता इस महामारी का अंत कर सकते हैं, वैश्विक अर्थव्यवस्था की नींव मज़बूत कर सकते हैं और जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही को रोक सकते हैं।

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