न्यूयॉर्क से भास्कर के लिए मोहम्मद अली
जैक्सन हाइट्स का दक्षिण एशियाई मार्केट क्वीन्स में है और न्यूयॉर्क के मुख्य शहर से महज 8 मील दूर है। 3 ट्रेन बदलकर मैनहट्टन से क्वीन्स जाने का सफर यहां की अप्रवासी संस्कृति पर प्रचलित मुहावरे की याद दिलाता है कि ‘क्वीन्स से मैनहटन की दूरी भले ही सिर्फ चार मील हो, पर मैनहटन शिफ्ट होने में पुश्तें गुजर जाती हैं।’ अभी चुनाव पूरे उफान पर है। ऐसे में जैक्सन हाइट्स जाना बेहद प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि प्रवासी और अप्रवासी पॉलिसी अमेरिकी चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा हैं और ये किंग मेकर की भूमिका में हैं।
जैक्सन हाइट्स दुनियाभर के अप्रवासियों का हब है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ग्रीस, इटली, नेपाल, त्रिनिडाड…। पूरे अमेरिका में यहां से ज्यादा विविधता कहीं और नहीं है। स्थानीय लोग बताते हैं 1.8 लाख की आबादी वाले इस इलाके में 167 से ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं।
राष्ट्रपति ट्रम्प की राजनीति और पॉलिसी भले ही अप्रवासी विरोधी हो, लेकिन ट्रम्प खुद एक अप्रवासी के पोते हैं। जर्मनी से आए उनके परिवार का संघर्ष इन्हीं गलियों से शुरू हुआ था। ट्रम्प और उनके पिता फ्रेड की पैदाइश भी यहां से महज दो किमी दूर क्वीन्स में हुई थी। ट्रम्प के पिता ने रियल एस्टेट का बिजनेस यहीं से शुरू किया था।
जैक्सन हाइट्स की पहचान डाइवर्सिटी प्लाजा है। इसी में सबसे बड़ा साउथ एशियन मार्केट है। ये प्लाजा 1930 के दशक में अर्ल थियेटर हुआ करता था, जिसमें एडल्ट मूवी दिखाई जाती थी। यहां 1960-70 के दशक में भारतीयों का जमावड़ा अचानक बढ़ गया और 1980 में अर्ल थियेटर ईगल बॉलीवुड सिनेमा में बदल गया। 2009 में इंडियन एक्टर हड़ताल पर चले गए। लिहाजा थियेटर कंपनी बंद हो गई। तब से यह दक्षिण एशियाई फूड कोर्ट में बदल गया है। यहां के चौराहों पर खड़ा होकर ऐसा लगता है कि दिल्ली की किसी मार्केट में हैं। वही सड़कें, वही भीड़भाड़, वही पान की दुकानें और गुटखे की पीक में रंगी हुई सड़कें और दीवारें भारत में होने का अहसास करा देती हैं। बहुत सारे बोर्ड लगे हुए हैं कि पान खाके थूकिए नहीं, लेकिन सड़कें और दीवारें रंगी हुई हैं।
डायवर्सिटी प्लाजा में दक्षिण एशियाई खाने की दुकानें हैं। कबाब से लेकर समोसा… यहां सब कुछ मिलता है। इसके एक हिस्से में दिल्ली हाइट्स है, जो भारतीय और नेपाली खाने से लोगों का स्वागत करती है। दीवार पर ही पूरा मैन्यू चिपका हुआ है। उसके बगल की दुकान में पान और वो गुटखा भी मिल जाएगा, जो इंदौर में रहने वाले लोग खाते हैं। यहां की भीड़-भाड़, पहनावे और संस्कृति को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि किसी जमाने में यह इलाका मध्य वर्गीय श्वेत लोगों का अड्डा हुआ करता था।
75 साल के मो. मुस्तकीम सड़क किनारे स्टाल लगाते हैं। वे बांग्लादेश से यहां 80 के दशक में आए थे। वे जाड़े की टोपी, दास्ताने, सैनिटाइजर बेचते हैं। उनसे यहां की राजनीति के बारे में पूछिए तो वे अपने सामान का दाम बताना शुरू कर देते हैं। हैंड सैनिटाइजर की एक बोटल 5 डॉलर की है, जो दो सेंकंड बाद 4 डॉलर की हो जाती है। पूरे न्यूयॉर्क में यह एक मात्र इलाका है, जहां मोलभाव होता है। कहते हैं कि हमारे लिए तो ओबामा ही ठीक था, उसके बाद कोई नहीं आया। इस बार लोग बोल रहे हैं कि कमला हैरिस आई है।
आखिर मुस्तकीम ने मुझे भी सैनिटाइजर बेच ही दिया। मुस्तकीम की दुकान से कुछ दूरी पर बॉम्बे ब्राइडल की दुकान है। इसके मालिक सुरिंदर पाल हैं, जो 70 के दशक में लुधियाना से आकर यहां के हो गए। कहते हैं कि ये मार्केट दक्षिण एशिया के लोगों के लिए संपन्नता की जिंदा कहानी है। लोग यहां आते हैं और तरक्की के बाद दूसरी जगह शिफ्ट हो जाते हैं। पाल दो दशक से ज्यादा समय से अमेरिकी चुनाव में वोट डालते आ रहे हैं। लेकिन चुनाव पर बात नहीं करना चाहते हैं।
अमेरिका के परंपरागत वोटर खुले होते हैं। लेकिन अप्रवासियों में हिचक है और थोड़ा डर भी। लेकिन घड़ी की मरम्मत करने वाले संतोष राणा कहते हैं कि इस देश को एक ही बात महान बनाती है, वो है अमेरिकन ड्रीम…। इस सपने को अपनी आंखों में लेकर दुनियाभर के लोग यहां आते हैं। यह सपना कि इस देश में मेहनत करके आसमान की बुलंदियों को छूआ जा सकता है। राणा 90 के दशक में मेरठ से यह सपना लेकर आए थे। बहुत गुस्से में दिखे। कहते हैं, ‘इसी ट्रम्प ने इस अमेरिकन ड्रीम के आइडिया को मारने की पूरी कोशिश की है। यही सपना कमला हैरिस को अमेरिका की पहली अश्वेत उपराष्ट्रपति बनाएगा।’