सिंघली-तमिलों में वर्चस्व की लड़ाई… 14 साल बाद कब्र से निकलेगा LTTE चीफ प्रभाकरन!

भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका ने पिछले कुछ महीनो में बहुत राजनीतिक उथल-पुथल देखी है. श्रीलंका में हो रही हलचल से पूरा एशिया प्रभावित रहा. नई सरकार के गठन से एक उम्मीद जगी और पूरा विश्व इस समुद्री देश में शांति की आशा करने लगा. रानिल विक्रमसिंघे नए राष्ट्रपति चुने गए. रानिल श्रीलंका की राजनीति के पुराने महारथी हैं. नई सरकार के सामने जनता का विश्वास जीतने की पहली चुनौती थी और साथ ही देश को प्रगति की राह पर ले जाने के लिए परिश्रम करना था।

रानिल विक्रमसिंघे की सरकार पिछले कुछ महीनो में अपनी पहली चुनौती में सफल होती दिख रही है. जनता अब सड़कों पर नहीं है. देश शांति की तरफ अग्रसर है. ऐसे में श्रीलंका की वर्तमान सरकार देश में स्थानीय चुनाव कराने की तैयारी कर है. जैसा की सभी जानते हैं श्रीलंका की राजनीति सिंघली और तमिलों के आसपास घूमती है. इन दोनों वर्गों में वर्चस्व की लड़ाई कोई नई बात नहीं है. श्रीलंका ने 80-90 के दशकों में इसी लड़ाई की वजह से बहुत हिंसा देखी है और बहुत कुछ खोया भी है।

2009 में प्रभाकरन को मार गिराने का दावा

प्रभाकरन एक नाम (जिसका सालों तक कोई चेहरा नहीं था. या यूं कहें किसी ने इस नाम के शख़्स को देखा नहीं था) वर्चस्व की इस लड़ाई का प्रमुख केंद्र बनकर उभरा है. तमिलों के लिए अलग प्रांत की मांग के साथ इस व्यक्ति ने तमिलों में अपनी साख बनाई और धीरे धीरे अपने हिंसक आंदोलन की वजह से देश और दुनिया में तमिलों की हक़ की लड़ाई का प्रमुख चेहरा बना रहा. साल 2009 में श्रीलंका की सरकार ने प्रभाकरन को मार गिराने का दावा किया. प्रभाकरन की मौत के साथ ही देश में दशकों से चल रही हिंसा का दौर समाप्ति की ओर चला गया।

अपने पड़ोसी देश श्रीलंका में चल रही हिंसा के दौरान भारत की सरकार ने ह।मेशा शान्ति बहाली में मदद का प्रयास किया. 80 के दशक के अंतिम सालों में भारत के निवर्तमान प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने श्रीलंका में शान्ति बहाली के लिए न सिर्फ कूटनीतिक बल्कि सैनिक सहायता भी की, जिसका तथाकथित रूप से उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा।

साल 1987 में श्रीलंका की सरकार ने अपने देश के संविधान में 13वां संसोधन करने की घोषणा की. कहते हैं ये संसोधन राजीव गांधी की सलाह पर किया गया था. उम्मीद थी 13वां संसोधन हो जाने से तमिल और सिंघली के बीच चल रही वर्चस्व की लड़ाई समाप्त हो जाएगी, क्यूंकि इस संसोधन से प्रांतों को महत्वपूर्ण अधिकार मिलना था. साथ ही तमिल को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिलनी थी. लेकिन अलग अलग कारणों की वजह से सरकार अभी तक इस संसोधन को पूरी तरह लागू नहीं कर पाई है।

प्रभाकरन की मौत का चुनावों में मिलेगा फायदा!

नई सरकार के गठन के साथ ही राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने 13वां संसोधन लागू करने की घोषणा की है. विक्रमसिंघे की इस घोषणा के साथ ही ऐसी उम्मीद जग रही है की देश स्थायी शांति हासिल करेगा. ऐसे में स्थानीय चुनावों से पहले प्रभाकरन के ज़िंदा होने के दावे से कई सवाल खड़े हो रहे हैं? क्या प्रभाकरन सिर्फ तमिलों की राजनीति का एक मुद्दा बन कर रह गया है? शांति की तरफ बढ़ रहे देश में स्थानीय चुनावों से पहले इस तरह के दावे के क्या मायने लगाए जा सकते हैं? श्रीलंका की राजनीती को करीब से समझने वाले बताते हैं कि प्रभाकरन का नाम तमिलों को एकजुट करने और हक़ के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित करने में सहायक हो सकता है और इस तरह की राजनीति करने वाले लोग प्रभाकरन की मौत को चुनावों में फायदा उठाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

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