कर्नाटक के उडुपी जिले में पिछले महीने एक कॉलेज में हिजाब पहनने पर छह छात्राओं को एंट्री नहीं दी गई। धीरे-धीरे यह विवाद राज्य के अन्य कॉलेजों में भी फैल गया। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या शैक्षणिक संस्थान ऐसे सख्त ड्रेस कोड लागू कर सकते हैं, जो छात्रों के अधिकार में हस्तक्षेप कर सके। यह मुद्दा धर्म की स्वतंत्रता को पढ़ने पर कानूनी सवाल उठाता है कि क्या हिजाब पहनने का अधिकार संवैधानिक रूप से संरक्षित है।
संविधान का अनुच्छेद 25 (1) “अंतरात्मा की स्वतंत्रता, धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने के लिए स्वतंत्र रूप से अधिकार” की गारंटी देता है। यह एक ऐसा अधिकार है जो नकारात्मक स्वतंत्रता की गारंटी देता है- जिसका अर्थ है कि राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि इस स्वतंत्रता का प्रयोग करने में कोई हस्तक्षेप या बाधा न हो। हालांकि, सभी मौलिक अधिकारों की तरह राज्य सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, स्वास्थ्य और अन्य हितों के आधार पर अधिकार को प्रतिबंधित कर सकता है।
सालों से सुप्रीम कोर्ट ने यह तय करने के लिए व्यावहारिक परीक्षण विकसित किया है कि किन धार्मिक प्रथाओं को संवैधानिक रूप से संरक्षित किया जा सकता है और क्या अनदेखा किया जा सकता है। 1954 में सुप्रीम कोर्ट ने शिरूर मठ मामले में कहा कि “धर्म” शब्द में एक धर्म के लिए “अभिन्न” सभी अनुष्ठानों और प्रथाओं को शामिल किया जाएगा। अभिन्न क्या है यह तय करने के लिए “आवश्यक धार्मिक प्रथाओं” को देखा जाता है।
आवश्यक धार्मिक प्रथाओं की प्रैक्टिस क्या है?
SC ने शिरूर मठ मामले में कहा था कि एक धर्म के आवश्यक हिस्से का गठन मुख्य रूप से उस धर्म के सिद्धांतों के संदर्भ में किया जाना है। धार्मिक प्रथाओं के न्यायिक निर्धारण की कानूनी विशेषज्ञों ने आलोचना भी की है, क्योंकि यह अदालत को धार्मिक स्थानों में तल्लीन करने के लिए प्रेरित करता है। जानकार इस बात से सहमत हैं कि अदालत के लिए सार्वजनिक व्यवस्था के लिए धार्मिक प्रथाओं को प्रतिबंधित करना बेहतर है, न कि यह निर्धारित करना कि किसी धर्म के लिए क्या आवश्यक है, जिसे संरक्षित किया जाना चाहिए।
कई मामलों में अदालत ने कुछ प्रथाओं को बाहर रखने का फैसला सुनाया है। 2004 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आनंद मार्ग संप्रदाय को सार्वजनिक सड़कों पर तांडव नृत्य करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं था, क्योंकि यह संप्रदाय की आवश्यक धार्मिक प्रथा का गठन नहीं करता था।
इन मुद्दों को बड़े पैमाने पर समुदाय-आधारित समझा जाता है। ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें अदालत ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर भी फैसले सुनाए हैं। उदाहरण के लिए, 2016 में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने दाढ़ी रखने के लिए भारतीय वायु सेना से एक मुस्लिम एयरमैन के डिस्चार्ज को बरकरार रखा। जस्टिस टीएस ठाकुर, डी वाई चंद्रचूड़ और एल नागेश्वर राव ने मुस्लिम एयरमैन के मामले को सिखों से अलग किया, जिन्हें दाढ़ी रखने की अनुमति है।
हिजाब के मुद्दे पर अदालतों ने अब तक कैसे फैसले सुनाए?
हिजाब का मुद्दा कई मौकों पर अदालतों में रखा गया है। केरल उच्च न्यायालय के दो फैसले, विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार कपड़े पहनने के अधिकार पर, परस्पर विरोधी जवाब देते हैं।
2015 में, केरल उच्च न्यायालय के समक्ष कम से कम दो याचिकाएं दायर की गई थीं, जिसमें अखिल भारतीय प्री-मेडिकल प्रवेश के लिए ड्रेस कोड के नियम को चुनौती दी गई थी। इस पर कोर्ट ने सीबीएसई के तर्क को स्वीकार किया कि नियम केवल यह सुनिश्चित करने के लिए था कि कैंडिडेट कपड़ों के भीतर वस्तुओं को छुपाकर अनुचित तरीकों का इस्तेमाल नहीं करेंगे। कोर्ट ने सीबीएसई को उन छात्रों की जांच के लिए अतिरिक्त उपाय करने का निर्देश दिया जो “अपने धार्मिक रिवाज के अनुसार पोशाक पहनने का इरादा रखते हैं, लेकिन ड्रेस कोड के विपरीत है”।
आमना बिंट बशीर बनाम केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (2016) केस में, केरल HC ने इस मुद्दे की अधिक बारीकी से जांच की। न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार ने कहा कि हिजाब पहनने की प्रथा एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है, लेकिन सीबीएसई के नियम को रद्द नहीं किया। सीबीएसई ने हर कैंडिडेट की जांच के लिए संसाधनों की कमी का हवाला दिया, अगर उन्हें अपनी पोशाक चुनने में स्वतंत्रा मिल जाती। इस तरह इन दोनों मामलों में खास उद्देश्य के लिए धर्म की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध शामिल है।